Dus Mahavidya
माँ तारा चालीसा
- जय तारा जगदम्ब जै - जय कृपाद्रष्टि की खान।
- माता तुम ही जगत की पालन हारी - तुम ही भक्तन कि भयहारी।
- तुम ही आदिशक्ति कलिका माइ - तुम ही सन्त जनों की सुखदायी।
- तारणी तरला तन्वी कहलाती - निज जनो की मंगलदाता कहलाती।
- तारा तरुणा बल्लरी तुम ही - तीररुपातरी श्यामा तनुक्षीन हो तुम ही।
- बामा खेपा की पालन कर्त्री - माँ तुम ही कहलाती हो सिद्धि दात्री।
- माता रूप तुम्हारा अति पावन - भक्तन की हो तुम मनभावन।
- तुमसे इतर नहीं कछु दूजा - तुम हो सुर-नर मुनि जन की भूपा।
- तुम ही माता नागलोक मे बसती - जन-जन की विपदा हरती।
- तुम ही माता कहलाती प्रलयंकारी - सकल त्रैलोक्य की भयहारी।
- माँ तुमने ही शिव प्राण बचाये - तुम्हरे सुमिरन से विष पार ना पाए।
- दस महाविद्या क्रम मे तुम आती - द्वितीय विद्या तुम कहलाती।
- माता तुम ही सरस्वती कहलाती - तुम ही हो ज्ञान की अधिष्ठात्री।
- नील सरस्वती है नाम तिहारो - चहूँ लोक फैलो जगमग उजियारो।
- श्मशान प्रिय श्मशाना कहलाती - एकजटा जगदम्बा कहलाती।
- माता शिव तुम्हरी गोद विराजे - मुण्डमाल गले मे अति साजे।
- बाम मार्ग पूजन तुम्को अति प्यारा - शरणागत की तुम हो सहारा।
- वीरभूमि कि माता तुम वासिनी - तुम ही अघोरा तुम ही विलासिनी।
- तुम्हरो चरित जगत आधारा - तुमसे ही माँ चहुँ दिशि उजियारा।
- तुम्हरो चरित सदा मै गाउं - तुमहि मात रूप मे पाऊं।
- चिंता सगरी हरो महतारी - तुम्हरो आसरा जगत मे भारी।
- तुरीया तरला तीव्रगामिनी तुमही - नीलतारा उग्रा विषहरी भी तुमही।
- तुम परा परात्परा अतीता कहलाती - वेदारम्भा वेदातारा कहलाती
- अचिन्तयामिताकार गुणातीता - बामाखेपा रक्षिता बामाखेपा पूजिता।
- अघोरपूजिता नेत्रा नेत्रोत्पन्ना तुमहि - दिव्या दिव्यज्ञाना भी तुमहि।
- सब जन मन्त्र रूप तुमहि माँ जपहि - त्रीं स्त्रीं रूप का ध्यान सब धरहिं ।
- मुझ पर माँ कृपाल हो जाओ - अपनी कृपा का अमिय जल बरसाओ।
- काली पुत्र निशदिन तुम्हे मनावे - निश-वासर माँ तुमको ध्यावे।
- खडग खप्पर तुम्हरे हस्त विराजे - खष्टादश तुम्हरी कळा अति साज़े।
- तुमने माता अगम्य चरित दिखलायो - अक्षोभ ऋषि को मान बढ़ायो।
- माता तारा मोरे हिय आय विराजो - नील सरस्वती बन साजो।
- तुम ही भक्ति भाव की अमित सरूपा - अखिल ब्रह्माण्ड की भूपा।
- बिन तुम्हरे नहि मोक्ष अधिकार - तुमसे है माता जगत का बेङा पार।
- आकर मात मोहि दरस दिखाओ - मम जीवन को सफल बनाओ।
- रमाकांत है तुम्हारि शरण मे - दीजो माता मोहि जगह चरण मे।
- जो मन मन्दिर मे तुमहि बसावे - उसका कोई बाल न बांका कर पावे।
- तुम्ही आदि शक्ति जगदीशा - ब्रह्मा विष्णु शिव सब नवायें शीशा।
- तुम ही चराचर जगत कि पालनहारी - तुम ही प्रलय काल मे नाशनकारी।
- जो नर पढ़ें निरन्तर तारा चालीसा - बिनश्रम होए सिद्ध साखी गौरीशा।
- जो नर-सुर मुनि आवे तुम्हरे धामा - सफल होयें उनके सब कामा।
- जय जय जय माँ तारा - दीन दुखियन की तुम हो मात्र सहारा।
निशदिन माता तारिणी तुम्हे नवाऊँ माथ ।
हे जगदम्ब दीज्यो मोहि सदा तिहारो साथ । ।
बिन तुम्हरे इस जगत मे नहि कोइ आलम्ब ।
तुमही पालनहार हो दक्षिणवासिनी जगदम्ब । ।
Tara Kali - तारा काली
माता तारा दस दस महाविद्याओं में से दुसरे क्रम में आती हैं - हालाँकि मान्यताओं के आधार पर ये काली कुल में आती हैं और इनकी सिद्धि सिर्फ वाम मार्गीय साधना से ही हो सकती है -!
पहले हम ये देख लेते हैं कि कुल क्या हैं ?
दस महाविद्या परिवार में आद्या माता महाकाली के दस रूप पूजित होते हैं जो निम्न प्रकार हैं :-
- महाकाली
- तारा
- त्रिपुरसुंदरी
- भुवनेश्वरी
- त्रिपुर भैरवी
- धूमावती
- छिन्नमस्ता
- बगला
- मातंगी
- कमला
उपरोक्त दसों रूप अत्यंत ही मंगलकारी और कल्याणकारी हैं और हर एक रूप सम्पूर्ण तथा भक्तों को सब कुछ प्रदान करने में समर्थ है - इसलिए जैसा कि मैंने कई बार देखा है कि अक्सर साधक वर्ग संदेह में रहता है और यदि उसे कोई समस्या आती है तो वह कई लोगों से संपर्क करता है और यदि वह समस्या आसानी से समाप्त नहीं होती तो उसको ये है कि जिनकी साधना मैं कर रहा हूँ वे या तो भक्त वत्सल नहीं हैं या फिर मेरी सहायता करना नहीं चाहती हैं - इसी समय यदि कोई दूसरा साधक उसे अपनी इष्ट के बारे में बताता है तो उसे लगने लगता है कि ये वाली माता बहुत अच्छी हैं और फिर कई बार साधक अपनी साधना छोड़कर दूसरे रूप के पीछे भागने लग जाता है जो किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है -!
क्योंकि कहते हैं कि जो इष्ट और मंत्र को बदलता है उससे बड़ा अपराधी कोई और नहीं होता -!
दस महाविद्या साधना को दो मुख्य धाराओं में बांटा जाता है जिसमे से एक धारा का नाम काली कुल और दूसरी धारा का नाम श्री कुल कहा गया है -!
कथित तौर पर या पूर्व वर्णित आख्यानों और गुरुओं के आधार पर काली कुल में सम्मिलित महाविद्याओं की सिद्धि के लिए वाम मार्ग का अनुसरण आवश्यक है एवं श्री कुल कि महाविद्याओं को प्रसन्न या सिद्ध करने के लिए दक्षिण मार्ग का अनुसरण किया जाना चाहिए -!
इसीलिए विज्ञजनों में कई बार इस सम्बन्ध में मतभेद भी होता है और यह मतभेद कई बार वाद और विवाद में भी परिवर्तित हो जाता है - क्योंकि सैद्धांतिक रूप से कोई भी साधक दोनों मार्गों का अनुसरण नहीं कर सकता जिसकी वजह से यदि कोई यह कहे कि उसने दसों महाविद्याओं को सिद्ध कर लिया है तो यह बात हास्यास्पद भी लगती है और साथ ही विवादित भी -!
लेकिन यहाँ पर मैं एक बात का और उल्लेख करना चाहूंगा की यह मेरे हिसाब से मुश्किल भी नहीं है और न ही विवादित तथा न ही हास्यास्पद - क्योंकि मार्गगत प्रतिबन्ध सिर्फ सिद्धियों पर लागु होता है साधना पर नहीं -!
साधना एक विस्तृत अर्थ रखने वाला शब्द है और इसे किसी एक अर्थ में बाँध कर नहीं रखा जा सकता है - साधना एक मार्ग है जिसके रास्ते में बहुत से पड़ाव आते हैं जिनमे से एक पड़ाव सिद्धि नाम का भी होता है - बहुत से मित्रों को देखा है - हर इंसान लघु मार्ग का चयन करके अधिकाधिक प्राप्त कर लेना चाहता है - लेकिन यह किसी कि समझ में नहीं आता कि लघु मार्ग कि आयु भी लघु ही होती है - मेरे पास जितने भी प्रश्न आते हैं सब के सब या तो सिद्धि प्राप्त करने के इच्छुक होते हैं या फिर वशीकरण जैसी तुच्छ चीज के इच्छुक - मैं उनसे पूछता हूँ :- " यह साधना आप क्यों करना चाहते हो " ? जवाब मिलता है = " शुरू से ही मेरी इच्छा थी कि मैं भी साधना करूँ " मुझे अच्छा लगता है ये जानकर और सोचता हूँ कि चलो अभी भी कुछ लोग हैं जो इस दिशा में बढ़ना चाहते हैं - इसके बाद बातों के दौरान ही मैं पूछता हूँ :- " तो आप यह साधना कुछ समय के लिए / किसी खास उद्देश्य कि पूर्ति के लिए चाहते हैं या फिर आजीवन " ? जवाब आता है = " कुछ चाहते हैं उन्हें प्राप्त करना चाहता हूँ - अभी आजीवन के बारे में तो नहीं सोचा लेकिन हां इस बारे में बाद में सोचूंगा - अचानक उसका मन करवट बदलता है और सवाल आता है " अच्छा एक चीज बताओ आप - क्या आप माता के दर्शन करवा सकते हो मुझे " ?
मैं स्तब्ध रह जाता हूँ और जवाब देता हूँ :- " भाई अभी तक तो मैं खुद भी दर्शन नहीं पा सका तो फिर आप से कैसे ये वादा करूँ - हाँ यदि आपके समर्पण में दम हुआ तो यह कोई मुश्किल नहीं है -!
और बस इसके बाद फिर कई दिनों तक निश्तब्धता तत्पश्चात फिर कुछ दिनों के बाद सन्देश आता है " आपके पास यदि कोई शक्तिशाली वशीकरण प्रयोग तो देने कि कृपा करें लेकिन उसमे विधि विधान का ज्यादा झंझट न हो "
मैं उपेक्षित कर देता हूँ सन्देश को और फिर लग जाता हूँ तलाश में किसी अन्य साधक की :::
::: माता तारा :::
सभी विज्ञजनो एवं पूर्व में कर चुके सभी अनुभवी साधकों से मेरा विनम्र निवेदन है कि यदि मेरे इस लिखे विधान में कोई त्रुटि नजर आये तो कृपया मुझे सुझाव प्रदान करें जिससे यह विधान जनहित में और भी अधिक परिष्कृत हो सके - इसके अतिरिक्त सभी नए एवं पुराने साधकों के समक्ष यह स्पष्ट कर दूँ कि यह विधान कोई सिद्धि विधान नहीं यह मातृ इष्ट निर्धारण और आजीवन पूजा पद्धति है - मैं वस्तुतः सिद्धियों के पूर्णतया खिलाफ हूँ और बस समर्पण और प्रेम के माध्यम से महाविद्याओं के चरणों में जगह बनाना चाहता हूँ एवं अन्य उन साधकों के लिए भी ये विधान समर्पित करना चाहता हूँ जो सामयिक सफलता के स्थान पर सर्वकालिक क्षमताओं को विकसित और पल्लवित करना चाहते हैं -!
सिद्धिगत सफलता के लिए माँ तारा कि साधना में वाम मार्ग का अनुसरण करना आवश्यक है - किन्तु यदि हम सिद्धि की जगह भक्ति पर दें तो हम उनकी कृपा किसी भी मार्ग से प्राप्त कर सकते हैं और मैं सात्विक / दक्षिण मार्ग का समर्थक हूँ अतएव मैं इसी मार्ग के विधान यहाँ प्रस्तुत करूँगा -!
किसी भी साधना के मार्ग में गुरु का बहुत बड़ा स्थान होता है एवं सर्वप्रथम गुरु का पूजन होता है इसलिए यदि पहले से ही आपके पास गुरु हैं और आपने गुरु मंत्र लिया हुआ है तो अपने गुरु का एक चित्र या गुरु प्रदत्त यन्त्र को अपने साथ रखें किन्तु यदि आपके पास कोई गुरु नहीं है तो निराश होने कि कोई जरुरत नहीं है आप मेरे गुरु को अपना गुरु स्वीकार करके अपनी साधना प्रारम्भ कर सकते हैं - मेरे गुरु को अपना गुरु स्वीकार करने के लिए आपको कुछ भी खास नहीं करना बस मुझे एक सन्देश भेजें मैं अपने गुरु कि तस्वीर आपको भेज दूंगा और तस्वीर को आप अपने पूजा स्थल में रखकर अपनी साधना के पथ पर आगे बढ़ सकते हैं :::
साधना मार्ग में आगे बढ़ने से पहले एक बात :- माता तारा का मंत्र "
त्रीं" है किन्तु "
त्रीं" बीजमंत्र
अक्षोभ ऋषिद्वारा शापित कर दिया गया था अतएव "
स्त्रीं" को बीज मंत्र के रूप में जपा जाता है इसमें " आधा स " लगाने से शाप विमोचन हो जाता है एवं माँ तारा कि साधना
अक्षोभ ऋषिकि पूजा के बिना फलप्रद नहीं होती तथा यदि कोई साधक इस साधना को
अक्षोभ ऋषिकि पूजा किये बिना करता है तो वह अपने सर्वस्व का नाश कर बैठता है -!
माता कि साधना में अधिकतम वस्तुएं नीले रंग कि प्रयोग की जानी चाहिए :-अक्षत :- कम से कम सौ की मात्रा में हों
दूर्वा :- कम से कम सौ की मात्रा में हों
आसन :- आसन समर्पण के समय आसन में पुष्प भी चढाने चाहिए
पाद्य :- चार आचमनी जल उसमे श्यामा घास ( दूर्वा / दूब ) कमल पुष्प देने चाहिए
अर्घ्य :- चार आचमनी जल , गंध पुष्प , अक्षत ( चावल ) दूर्वा , काले तिल , कुशा , एवं सफ़ेद सरसों
आचमन में :- छः आचमनी जल तथा लौंग
मधुपर्क :- कांश्य / ताम्बे के पात्र में घी , शहद , दही
स्नान/ विग्रह :- पचास आचमनी जल
वस्त्र :- वस्त्रों का जोड़ा भेंट करना चाहिए
आभूषण :- स्वर्ण से बने हुए हों या फिर सामर्थ्यानुसार अथवा यदि उपलब्धता न हो तो सांकेतिक या मानसिक आभूषण समर्पण
गंध :- चन्दन , अगर और कर्पूर को एक साथ मिलकर बनाया गया हो
पुष्प :- कई रंग के हों और कम से कम पचास हों
धूप :- गुग्गल का धूप अति उत्तम होता है और कांश्य / ताम्र पात्र में समर्पित करना चाहिए
नैवेद्य :- कम से कम एक व्यक्ति के खाने लायक वस्तुएं होनी चाहिए
दीप :- कपास की रुई में कर्पूर मिलकर लगभग चार अंगुल लम्बी बत्ती होनी चाहिए
सारी सामग्री को अलग अलग बर्तन में होना चाहिए और बर्तन / पात्र स्वर्ण/ रजत / कांश्य / पीतल / ताम्र से निर्मित हों .... या फिर मिटटी के बने हुए हों
पूजन सामग्री :-
एक आसन - नीला रंग - माँ कि स्थापना के लिए
एक आसन - नीला रंग - आपकी साधना के लिए
एक ताम्बे कि प्लेट - गुरु चित्र स्थापित करने के लिए
एक ताम्बे का -लोटा - जल रखने के लिए
एक ताम्बे कि छोटी चमची - जल एवं आचमन समर्पण के लिए
एक माला - मंत्र जप के लिए ( काला हकीक / रुद्राक्ष / लाल मूंगा )
गुरु का चित्र , आम की लकड़ी से बना सिंहासन या फिर जो भी उपलब्ध हो सामर्थ्य के अनुसार , सिंहासन वस्त्र ( जो सिंहासन पर बिछाया जायेगा ) माता को समर्पित करने के लिए वस्त्र , माता के लिए श्रंगार सामग्री , साधक के खुद के लिए कपडे जो नीले रंग के होने चाहिए तथा यदि किसी पुरोहित की मदद लेते हैं पूजा में तो पुरोहित के लिए कपडे ( पुरोहित को समर्पित किये जाने वाले कपड़ो में रंग भेद नहीं होगा ) जनेउ , लाल अबीर
२. पान के पत्ते , सुपारी , लौंग , काले तिल , सिंदूर , लाल चंदन ,गाय का घी , गाय का दूध , गाय का गोबर
३. धूप , सुगन्धित अगरबत्ती , रुई , कपूर , पञ्चरत्न , कलश के लिए मिटटी का घड़ा , नारियल ( एक कच्चा और एक सूखा )
४. केले , फल पांच प्रकार के , पांच प्रकार की मिठाई
५. पुष्प , विल्व पत्र ( बेल पत्र ) , आम के पत्ते , केले के पत्ते , गंगाजल , अरघी , पांच बर्तन कांसे के / पीतल के ( २ कटोरी , २ थाली , १ गिलास )
६. आसन कम्बल के - नीला रंग -२ ( यदि पुरोहित साथ में हों तो २ अन्यथा १ ) चौमुखी दीपक , रुद्राक्ष या लाल चन्दन की माला , आम की लकड़ी , माचिस , दूर्वादल ( दूब ) , शहद , शक्कर , पुस्तक ( जिसके विधि विधान से साधना की जानी है ) , जौ , अभिषेक करने के लिए पात्र , विग्रह ( स्नान के बाद और नवेद्य समर्पित करने के पश्चात ) पोंछने के लिए नीला कपडा , शंख , पंचमेवा , मौली , सात रंगों में रंगे हुए चावल , एवं भेंट में प्रदान करने के लिए द्रव्य ( दक्षिणा धन ) !
नित्य पूजा प्रकाश में वर्णित कुछ पूजन से सम्बंधित तथ्य :-
अक्षत :- कम से कम सौ की मात्रा में हों
दूर्वा :- कम से कम सौ की मात्रा में हों
आसन :- आसन समर्पण के समय आसन में पुष्प भी चढाने चाहिए
पाद्य :- चार आचमनी जल उसमे श्यामा घास ( दूर्वा / दूब ) कमल पुष्प देने चाहिए
अर्घ्य :- चार आचमनी जल , गंध पुष्प , अक्षत ( चावल ) दूर्वा , काले तिल , कुशा , एवं सफ़ेद सरसों
आचमन में :- छः आचमनी जल तथा लौंग
मधुपर्क :- कांश्य / ताम्बे के पात्र में घी , शहद , दही
स्नान/ विग्रह :- पचास आचमनी जल
वस्त्र :- वस्त्रों का जोड़ा भेंट करना चाहिए
आभूषण :- स्वर्ण से बने हुए हों या फिर सामर्थ्यानुसार अथवा यदि उपलब्धता न हो तो सांकेतिक या मानसिक आभूषण समर्पण
गंध :- चन्दन , अगर और कर्पूर को एक साथ मिलकर बनाया गया हो
पुष्प :- कई रंग के हों और कम से कम पचास हों
धूप :- गुग्गल का धूप अति उत्तम होता है और कांश्य / ताम्र पात्र में समर्पित करना चाहिए
नैवेद्य :- कम से कम एक व्यक्ति के खाने लायक वस्तुएं होनी चाहिए
दीप :- कपास की रुई में कर्पूर मिलकर लगभग चार अंगुल लम्बी बत्ती होनी चाहिए
सारी सामग्री को अलग अलग बर्तन में होना चाहिए और बर्तन / पात्र स्वर्ण/ रजत / कांश्य / पीतल / ताम्र से निर्मित हों .... या फिर मिटटी के बने हुए होंपूजन प्रारम्भ
१. गणेश पूजन
आवाहन :- गदा बीज पूरे धनु शूल चक्रे
सरोजोत्पले पाशधान्या ग्रदन्तानकरै संदधानं
स्वशुंडा ग्रराजन मणीकुंभ मंकाधि रूढं स्वपत्न्या
सरोजन्मा भुषणानाम्भ रेणोज्जचलम
द्धस्त्न्वया समालिंगिताम करीद्राननं चन्द्रचूडाम
त्रिनेत्र जगन्मोहनम रक्तकांतिम भजेत्तमम
ॐ गंगाजले स्नानियम समर्पयामि श्री गणेशाय नमः
ॐ अक्षतं समर्पयामि भगवते श्री गणपति नमः
ॐ वस्त्रं समर्पयामि भगवान् श्री गणपति नमः
ॐ चन्दनं समर्पयामि भगवान् गणपति इदं आगच्छ इहतिष्ठ
ॐ विल्वपत्रम समर्पयामि भगवते श्री गणपति नमः
ॐ पुष्पं समर्पयामि भगवान् श्री गणपति नमः
ॐ नवेद्यम समर्पयामि भगवान् गणपति इदं आगच्छ इहतिष्ठ
विश्वेश माधवं ढुंढी दंडपाणि बन्दे काशी
गुह्या गंगा भवानी मणिक कीर्णकाम
वक्रतुंड महाकाय कोटि सूर्य सम प्रभ
निर्विघ्नं कुरु में देव सर्व कार्येषु सर्वदा
सुमश्वश्यैव दन्तस्य कपिलो गज कर्ण कः
लम्बरोदस्य विकटो विघ्ननासो विनायकः
धूम्रकेतु गर्णाध्यक्ष तो भालचन्द्रो गजाननः
द्वादशैतानि नमामि च पठेच्छणु यादपि
विद्यारंभे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते
शुक्लां वर धरं देवं शशि वर्ण चतुर्भुजम
प्रसन्न वदनं ध्यायेत सर्वविघ्नोप शान्तये
अभीष्ट सिध्धार्थ सिद्ध्यर्थं पूजितो य सुरासुरै
सर्व विघ्नच्छेद तस्मै गणाधिपते नमः
इसके पश्चात् सद्गुरु का आवाहन और पूजन करें :-
गुरु आवाहन मंत्र :-
सहस्रदल पद्मस्थ मंत्रात्मा नमुज्ज्वलम
तस्योपरि नादविन्दो मर्घ्ये सिन्हास्नोज्ज्वले
चिंतयेन्निज गुरुम नित्यं रजता चल सन्निभम
वीरासन समासीनं मुद्रा भरण भूषितं
इसके पश्चात् गुरु देव का पंचोपचार विधि से पूजन करें :-
ॐ गंगाजले स्नानियम समर्पयामि श्री गुरुभ्यै नमः
ॐ अक्षतं समर्पयामि भगवते श्री गुरुभ्यै नमः
ॐ वस्त्रं समर्पयामि भगवान् श्री गुरुभ्यै नमः
ॐ चन्दनं समर्पयामि भगवान् गुरुभ्यै इदं आगच्छ इहतिष्ठ
ॐ विल्वपत्रम समर्पयामि भगवते श्री गुरुभ्यै नमः
ॐ पुष्पं समर्पयामि भगवान् श्री गुरुभ्यै नमः
ॐ नवेद्यम समर्पयामि भगवान् गुरुभ्यै इदं आगच्छ इहतिष्ठ
इसके पश्चात् गुरुस्तोत्र का पाठ करें :
श्री गुरुस्तोत्रम् :-
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१॥
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥२॥
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशालाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥३॥
स्थावरं जङ्गमं व्याप्तं येन कृत्स्नं चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥४॥
चिद्रूपेण परिव्याप्तं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥५॥
सर्वश्रुतिशिरोरत्नसमुद्भासितमूर्तये ।
वेदान्ताम्बूजसूर्याय तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥६॥
चैतन्यः शाश्वतः शान्तो व्योमातीतोनिरञ्जनः ।
बिन्दूनादकलातीतस्तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥७॥
ज्ञानशक्तिसमारूढस्तत्त्वमालाविभूषितः ।
भुक्तिमुक्तिप्रदाता च तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥८॥
अनेकजन्मसम्प्राप्तकर्मेन्धनविदाहिने ।
आत्मञ्जानाग्निदानेन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥९॥
शोषणं भवसिन्धोश्च प्रापणं सारसम्पदः ।
यस्य पादोदकं सम्यक् तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१०॥
न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः ।
तत्त्वज्ञानात् परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥११॥
मन्नाथः श्रीजगन्नाथो मद्गुरुः श्रीजगद्गुरुः ।
मदात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१२॥
गुरुरादिरनादिश्च गुरुः परमदैवतम् ।
गुरोः परतरं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१३॥
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम्
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् ।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षीभूतम्
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुंतं नमामि ॥१४॥
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इसके पश्चात् पृथ्वी शुद्धि करण कर लें
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प्रथ्वी शुद्धि मंत्र :-
ॐ अपरषन्तु ये भूता ये भूता भूवि संस्थिता
ये भूता विघ्नकर्ता रश्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया
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इसके पश्चात् अक्षोभ ऋषि का पंचोपचार विधि से पूजन करें :
ॐ गंगाजले स्नानियम समर्पयामि श्री अक्षोभ ऋषये नमः
ॐ अक्षतं समर्पयामि भगवते श्री अक्षोभ ऋषये नमः
ॐ वस्त्रं समर्पयामि भगवान् श्री अक्षोभ ऋषये नमः
ॐ चन्दनं समर्पयामि श्री अक्षोभ ऋषये नमः
ॐ विल्वपत्रम समर्पयामि श्री अक्षोभ ऋषये नमः
ॐ पुष्पं समर्पयामि भगवान् श्री अक्षोभ ऋषये नमः
ॐ नवेद्यम समर्पयामि श्री अक्षोभ ऋषये नमः
तत्पश्चात निम्न मंत्र को २१ /५१ /एक माला जाप कर लें